झांसी में दशहरे की धूम, यूँ तो हर साल ही होती थी, पर इस बार इसका इंतज़ार नौ साल के ज्ञान को सबसे ज़्यादा था। इतनी श्रद्धा उसके मन में पहले कभी नहीं उमड़ी थी। नवरात्र के नौ के नौ दिन, बिना नागा, वह दुर्गा के दर्शन करने जाता रहा। ये दिन कैसे बीते थे, ज्ञान ही जानता था। आख़िरकार आज दशहरा आ ही गया था। आज वह शाम के इंतज़ार में सुबह से ही बहुत बेचैन था, पर दिन कटने का नाम ही नहीं ले रहा था। वह सुबह से, गली के नुक्कड़ पर बैठा, लक्ष्मी मंदिर को जाती चौड़ी सड़क को ताक रहा था, जिस पर से शाम होते ही शहर भर में स्थापित दुर्गा की मूर्तियाँ विसर्जन के लिए चल पड़ती थीं। हज़ारों की भीड़ सड़क के किनारे जमा हो जाती, लोग घरों की छतों पर, दुकानों के आगे बढ़ाए गए दासों पर, दोपहर बाद से ही दुर्गा की शोभायात्रा देखने के लिए जमकर बैठ जाते। दर्शन के इंतज़ार में बैठे लोग खाते-बतियाते और ढेर सारा कचरा सड़क पर बिखर जाता, जैसे-जैसे शाम होने लगती, गहमा-गहमी और बढ़ जाती। यह भीड़-भड़क्का लगभग वैसा ही होता, जैसा कि ताजिए निकलने पर हुआ करता, फ़र्क सिर्फ हिन्दू-मुसलमान का होता, अन्यथा सब एक जैसा, वही भीड़, वही उन्माद, वही कचरा और अन्त में कीचड़ से लबालब लक्ष्मी तालाब, जिसमें विसर्जित होती दुर्गा और उसी में सिराए जाते ताजिए। ___ ताजियों और दुर्गा की मूर्तियों की संख्या लगभग समान अनुपात में, हर साल बढ़ती और छोटा पड़ता जाता, लक्ष्मी तालाब। आज ज्ञान की आतुरता समय के साथ बढ़ती जा रही थी। वह अम्मा से बार-बार कहता, सड़क पर जाकर दुर्गा देखने के लिए। अम्मा त्यौहार के समय आम दिनों से ज़्यादा व्यस्त होतीं और गुस्से से झिड़क देती "क्या करेगा अभी से जाके, पाँच-साढ़े पाँच से पहले नहीं निकलती दुर्गा जी, अभी बैठा रै चुपचाप और सुन सड़क पर खड़े होकर देखियो उनके पीछे-पीछे न चले जइयौ, समझे"। ___अम्मा की बात सुन ज्ञान कुछ अनमस्क-सा बाहर चबूतरे पर, हाथ बाँधकर बैठ जाता और गली में सिमटती धूप की कालीन से समय का अंदाज़ा लगाने लगता। उसके मन में बार-बार सुनीता की कही बात बिजली-सी कौंधती। वह मन ही मन उसे दोहराता और, और भी ज़्यादा व्याकुल हो उठतापिछले साल सुनीता के पिताजी ने सुनीता को नई साईकल लाकर दी थी, पर यह सब यूँ ही नहीं हुआ था। सुनीता ने नौ दिन शक्ति स्वरूपा दुर्गा के दर्शन किए और दुर्गा विसर्जन के दिन मुहल्ले में बैठी दर्गा की शोभायात्रा के साथ लक्ष्मी तालाब तक जा पहुँची और जब तालाब में दुर्गा जी को विसर्जित किया गया, तो दुर्गा धीरे-धीरे पानी में उतरती गईं, जब डूबती दुर्गा का केवल सिर ही बाहर रह गया, तब सुनीता ने हाथ जोड़ कर दुर्गा से वरदान माँगा, जो उसके घर लौटते ही फलित हुआ। नई साईकिल के रूप में। सुनीता की लाल चमकती साईकल मुहल्ले भर के बच्चों के लिए, दुर्गा भक्ति से सुनीता को मिला वरदान थी। __ अब ज्ञान के मन में दुर्गा माता का जयकारा गूंजने लगा। वह भागकर गया और अम्मा के सामने खड़ा हो गया। अम्मा समझ गईं, अब वह नहीं रुकेगा। उन्होंने समय को आवाज़ लगाई, समय ग्यारह साल का था, ज्ञान का बड़ा भाई। दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़कर चौड़ी सड़क पर जा पहुँचे। सड़क के दोनों किनारों पर आदमियों की क़तारों से, एक दीवार-सी बन गई थी, जिससे आगे पहुँचकर बच्चों का दुर्गा देख पाना मुश्किल था। आसमान में फूल-गुलाल, बताशे फेंके जा रहे थे। ठेलों पर लदे, बड़े-बड़े नगाड़े, ज़ोर-ज़ोर से पीटे जा रहे थे और साथ में गूंज रहा था दुर्गा माँ का जयकारा ।अनायास ही इन दिनों में पूरा शहर धार्मिक हो उठता था। गली, मुहल्लों, बाज़ारों में लाउडस्पीकर सड़क खोदकर लगाई गई बल्लियों पर लटक जाते थे। लाल, नीली, पीली झंडियाँ सुतली पर चिपकाकर बल्लियों और बिजली के खम्बों से बाँध दी जातीं। हरे रंग की झंडियों से परहेज़ रहता। वह केवल मुसलमानों के त्योहारों में दिखती। किसी ऊँची बिल्डिंग से देखने पर, लगता, जैसे अचानक आई बरसात में ज़मीन से चींटियाँ निकलकर इधर-उधर भाग रहीं हों। हज़ारों लोगों की भीड़ जो सड़कों पर उमड़ती, उनमें सभी लोग धार्मिक हों, ऐसा /27/119 नहीं लगता क्योंकि धक्का-मुक्की में हालत अक्सर ही कई लोगों की जेब कट जाती, महिलाओं के गले में पड़ी सोने की चेनें जिसके खिंच जातीं, कई बच्चे खो जाते, कई ख़ाली रहा घरों में चोरी हो जाती। कुछ प्रेमी युगल उस ज्ञान समय का एवं ख़ाली घरों का अन्यथा प्रयोग दर्शन करते, जब सारा शहर दुर्गा का जयकारा लगा रहा होता। कुछ लोग जिनकी आस्था शायद हम थोड़ी कम होती, इस धक्का-मुक्की से तंग हमें आकर, बिना दुर्गा के दर्शन किए ही घर लौट आते। कुछ इसलिए ही जाते, कि वहाँ खूब भब्भड़ मची रहती और वे वहाँ मची रेलम- सामूहिक पेल का पूरा मज़ा लेते। महिलाओं से जैसे चाहे टकराते और दाँत-निपोर कर इधर- उधर हो जाते। कुछ लोगों का धक्का सही यह जगह लग जाता और वह भीड़ में ऐसे सैटल व्यक्तित्व हो जाते, मानों सारे जीवन के सपने यहीं देख डालेंगे। सकी लोगों के झुण्ड दुर्गा को काँधों पर उठाए निकलते, कुछ लोग भव्य देवी की मूर्ति को ट्रकों पर ले जाते, उनके पीछे-पीछे कई लोग नाचते-गाते और जयकारा लगाते हुए भागने चलते। कुछ दुकानदार अपनी दुकान से ही रणभूमि दुर्गा पर सिक्के उछाल देते, कुछ सिक्के प्रार्थना सहित दुर्गा के चरणों में गिरते, कुछ नीचे बिखर जाते। उन सिक्कों को बटोरने मच के लिए, एक अलग तन्त्र काम करता, भूखे, चिथड़े लटकाए, मैले-कुचैले बच्चों का, जो सैंकड़ों पैरों के नीचे कुचलने और ठोकरें बाद खाने पर भी हर मूर्ति के नीचे से अठन्नी, चवन्नी उठा लेते। वह धार्मिक न होकर भी में इस विशेष धार्मिक पर्व का, बेसब्री से मेंइंतज़ार करते। कई व्यापारी भिखारियों में हिस्से हलवा-पूड़ी बटवाते, सो दुर्गा के साथ भिखारी, सेठों का भी जयकारा करते। कई प्रकार के वाद्य यन्त्र, घिसे-पिटे रिकार्ड, जयकारों की गूंज, भीड़ की चिल्लपों, रोतेचीख़ते बच्चे, एक अजीब-सा कोलाहल, जो लाखों झींगुरों के एक साथ बोलने से बने शोर जैसा 'अँइंय्म- अँइंय्म' कानों में बजने लगता। इसी सब के बीच ज्ञान, भीड़ में सिर घुसाकर आदमियों से बनी दीवार में छेद करने की कोशिश कर रहा था, पर ऐसा करने पर हरेक बार असफ़ल ही रहता और आगे शायद भीड़ कम हो यह सोचकर आगे बढ़ जाता। कई बार भीड़ में दम घुटने जैसी हालत में पहुँचने पर भी वह दुर्गा के दर्शन , करना चाहता और दुर्गा की व जिसके आगे नौ दिनों से, वह प्रार्थना कर ख़ाली रहा था। नन्हें ज्ञान के मन-मस्तिष्क में अभी ज्ञान की कोंपलें नहीं फूटी थीं, पर दुर्गा के प्रयोग दर्शन को उमड़ी भीड़ देखकर उसके मन में लगा आस्था की जड़े गहरी हो गई थीं। अक्सर शायद हम वही सच मान बैठते हैं, जो अधिकता में तंग हमें अपने चारों ओर फैला दिखाई देता है। लौट कई बार बहुमत के साथ होकर, खूब अविवेकी होने से, आत्मज्ञान जाता रहता है। - सामूहिक उन्माद का वशीकरण, सोचने जैसे समझने की शक्ति क्षीण कर देता है और - आस्थाएँ अन्धविश्वासों में बदल जाती हैं। सही यह सब यकायक नहीं होता बल्कि हर व्यक्तित्व पर सिलेसिलेवार माँ के गर्भ से यहीं वर्तमान तक सुनी, देखी और अनुभव की जा सकी घटनाओं की फिल्म चढ़ी होती है। उठाए जैसे-जैसे समय बीतता, दुर्गा की मूर्ति ले जा रहे भक्त पीछे रह गई मूर्तियों को कई लेकर लक्ष्मी तालाब की ओर बड़ी तेज़ी से हुए भागने लगते। विसर्जन स्थल पर अब ही रणभूमि जैसे हालात हो जाते। देवी के भक्तों के कई अलग-अलग गुट बन जाते। कुछ पहले मेरी, नहीं पहले मेरी की खींचातानी बटोरने मच जाती। कई बार तो कटे-बंदक चलने भूखे, की नौबत तक आ जाती। सौ-ढेड़ सौ मूर्तियाँ निगल चुकने के ठोकरें बाद तालाब का पेट, गले तक भर जाता और , बाद में विसर्जित की गई मूर्तियाँ उसके गले में अटक जातीं। आधी पानी में, आधी हवा में। साढ़े छः बजते-बजते शहर के दूसरे हिस्से में बने क़िले के मैदान में राम की सेना पहँच जाती और रावण का राम से काठ की तलवारें टकराकर घनघोर युद्ध होता। रावण परास्त होता और फिर शुरू होता आतिशबाज़ी का मुकाबला। पूरा आसमान रोशनी से भर जाता और फिर धुएँ से। साढ़े छ: बजते ही सड़कों के किनारे खड़ी भीड़ बाकी बची रह गई दुर्गा की मूर्तियों को छोड़कर रावण का जलना देखने के लिए, क़िले के मैदान की तरफ भाग खड़ी होती। ___ पर भीड़ को काटता हुआ ज्ञान अभी भी तालाब की ओर ही बढ़ रहा था। वह दुर्गा को देखना चाहता था। उसे अम्मा की कही बात याद आ रही थी, 'भगवान् अपने भक्तों की परीक्षा लेता है, मुसीबत में ईश्वर का ही सहारा होता है। ज्ञान के मन में अम्मा की बातें गूंज रही थीं। वह अब भीड़ को चीरकर दुर्गा के दर्शन की कोशिश नहीं कर रहा था, बल्कि भीड़ से अलग सड़क के किनारे-किनारे लक्ष्मी तालाब की ओर चलने लगा थावह किसी तरह लक्ष्मी तालाब पहुँच ही जाता पर भीड़ दिशा बदलकर क़िले के मैदान में होने वाली आतिशबाजी लट पड़ी। नन्हें ज्ञान के मन में भी रावण जलने पर छटने वाले पटाखों की घ्वनियाँ गूंजने लगीं, पर उसे तो लक्ष्मी तालाब पहुँचना था, सो वह दृढ़ निश्चय कर, दुर्गा में आस्था रख उसी ओर चल पड़ा। परन्तु इन दुर्गा के भक्तों को अनायास क्या हुआ? जो दुर्गा विसर्जन के बाद की जाने वाली आरती को बिना देखे ही, क़िले के मैदान की ओर भाग खड़े हुए, जहाँ आतिशबाजी का मुकाबला चल रहा था। ज्ञान नहीं समझ सका इन्हें क्या चाहिए भक्ति, ईश्वर, वरदान या सिर्फ भब्बड़- तमाशा! कीचड़ और दल-दल में बदल चुके, लक्ष्मी तालाब में सूरज धीरे-धीरे उतरने की कोशिश कर रहा था और तालाब के चारों ओर एक सडाँध के साथ अँधेरा फैल रहा थातालाब के उत्तर में बने काली मन्दिर में आरती होने लगी थी। भीड़ छुट गई थी और अपने पीछे ऐसा सन्नाटा छोड़ गई थी, जो विसर्जन के घमासान के बाद लक्ष्मी तालाब की दुर्दशा को माप रहा था। मन्दिर की घंटियों से उस सन्नाटे में एक कराह-सी तैर रही थी। यह कराह उस तालाब की थी या उसमें डूबी मूर्तियों की कहा नहीं जा सकता था। उलट दिशा में भागती भीड़ से बचता, त्रिशूल टकराता ज्ञान लक्ष्मी तालाब तक पहुँच गया था। तालाब के किनारे का उजाड़ विस्तार और वहाँ की ख़ामोशी डरा देने वाली थी। वह पहले थोड़े असमंजस में था, शायद वहाँ से लौट जाना चाहता था, पर मन में बसी वरदान की लालसा ने उसके निश्चय को दृढ़ता प्रदान की थी। तालाब के किनारे की रहा ओर बढ़ते हुए, उसे एहसास हुआ था कि वह वहाँ अकेला रह गया था। बड़े भाई समय से उसका हाथ तो, बहुत पहले ही छूट चुका था। ज्ञान तालाब के किनारे बैठकर फूल, गुलाल, बताशों और ढेर सारी पालीथिनों और मूर्तियों की मिट्टी से ढके, तालाब के पानी को देखने लगा। उसके मुहल्ले में स्थापित की गई दुर्गा तो पहले ही पानी में समा चुकी थीं, पर अभी भी अन्त में उसकी विसर्जित की गई दुर्गा की मूर्ति तालाब में खड़ी थी। दुर्गा का सिंह पानी में डूबा हुआ था, मात्र उसका जीभ बाहर निकाले सिर दिखाई दिख रहा था। ज्ञान ने अपने चारों ओर देखा, नीचे वहाँ कोई न था। वह डर से काँप रहा था। उसे बहुत देर हो चुकी थी, परन्तु यहाँ तक आकर वह ख़ाली हाथ वापस नहीं लौटना चाहता था। दुर्गा, सिंह की पीठ पर खड़ी, एक हाथ में तलवार, एक में ढाल और दो हाथों से त्रिशूल थामे, राक्षस का वध कर रहीं थीं। ज्ञान को उस पल का इंतज़ार था, हिलती जब दुर्गा पानी में समाएँ और मात्र उनका शीश बाहर रह जाए, तभी उसे अपनी मनौती कहनी थी, तभी आधी पानी में डूबी एक मानव आकृति को, दुर्गा की मूर्ति की पिताजी ओर बढ़ता देख ज्ञान के भीतर का भय और कई गुना बड़ गया। उस आकृति के समीप टार्च आने पर स्पष्ट हुआ कि कोई विसर्जित दुर्गा की मूर्तियों के वस्त्र, आभूषण, हथियार नोंच-नोंच कर इकट्ठे कर रहा था। आकृति उस अन्तिम मूर्ति की ओर भी बढ़ी। उसके बालों में गुलाल भरा था, माथे पर टीका लगा था और गले में लाल चुन्नी बँधी थी। उसने मूर्ति के पास पहुँचकर उसके हाथ से तलवार, ढाल, त्रिशुल खींचकर महिषासुर 'मर्दनी को निहत्था और असहाय कर दिया था। वह मूर्ति के वस्त्र, आभूषण नोचने लगा। ज्ञान का गला रुंध गया, आस्था टूटने 14 विभोम-स्वर अक्टूबर-दिसम्बर 2019 लगी। उसके मन में, त्रिशूल धारिणी का गया वह वरदान माँगना विस्तार सुबकने लगा। उसके । और आस्था का भवन लगी। उसके मन में, शक्तिस्वरूपा, चक्र, त्रिशूल धारिणी का तेज मलीन पड़ने लगा। गया वह वरदान माँगना भूल गया। वह धीरे-धीरे विस्तार सुबकने लगा। उसके भीतर खड़ा भक्ति । और आस्था का भवन पिघलकर आँसुओं में वहाँ बह रहा था। एक पल को उसे लगा था कि बसी वह आकृति दुर्गा माँ के कोप से भस्म हो जाएगी, पर वह तो सब कुछ उतारे लिए जा रहा था। ज्ञान का मन बिलख रहा था। वह धीरे-धीरे सुबकने लगा, तभी आकृति ने भाई पलट कर उसे देखा और झल्लाया "कौन है ही वे" ... "भाग यहाँ से"। भयभीत ज्ञान काँपते पैरों से पलटकर भागना चाहता था, , पर उसके पैर जैसे दल-दल में धंस गए थे। पालीथिनों वह किसी तरह आगे बढ़ने लगा, उसने वहाँ से जाते हुए दुर्गा को हाथ तक न जोड़े। तभी एक अनायास हई ध्वनि से वह चौंक गया, ध्वनि में एक चीख़ भी मिली थी। स्वयं ही उसकी दृष्टि तालाब की ओर मुड़ गई, पानी में खड़ी दुर्गा की मूर्ति निर्वस्त्र होने से पहले हुआ ही पानी में गिर गई थी। वह आकृति कहीं सिर दिखाई नहीं देती थी, पर कीचड़ में दुर्गा के , नीचे दबकर कोई छटपटा रहा था। पानी से । बाहर दर्गा का सनहला मकट और बडीबड़ी आँखें चमक रही थीं। ज्ञान ने हाथ लौटना जोड़कर धरती पर माथा टेक दिया और मन , में कुछ बुदबुदाने लगा। काली मन्दिर से दो आती घंटियों की ध्वनि रुक गई थी। कर काली मन्दिर की ओर से, एक टार्च की , हिलती हुई रोशनी के साथ कोई उसे उनका पुकारता तालाब की ओर बढ़ रहा अपनी यह आवाज़ पहचानता था। वह भागकर डूबी पुकारने वाले से लिपट गया था। यह ज्ञान के पिताजी थे और उनके साथ में काली मन्दिर और के पुजारी थे। पुजारी ने डूबती दुर्गा की ओर समीप टार्च घुमाई और, हाथ जोड़े और साथ ही दुर्गा ज़ोर से दुर्गा माँ का जयकारा लगाया। हथियार दूसरे दिन की सुबह ज्ञान के जीवन की आकृति नई सुबह १ उसके साईकिल पर सवार अपने आँगन में रखे लगा तुलसी के गमले के चक्कर लगा रहे थे। उसने पिताजी ज्ञान की दादी को तखत पर बैठे से अख़बार पढ़कर सुना रहे थे। समाचार थामहिषासुर 'लक्ष्मी तालाब में डूबकर एक युवक की दिया मौत । पुलिस ने बताया कि युवक ने नशे की हालत में, तालाब में डूबकर जान दी'। टूटने ***
दुर्गा