भिन्न विचारों के प्रति भी उदार रहना ज़रूरी हैविचारधारा एक ऐसी संकरी गली है, जो सोच और विचारों को बस एक जगह लाकर बंद कर देती है। उस बंद मोड़ पर कोई खिड़की नहीं होती, जो खुल सके, जिससे ताज़ा हवा का झोंका आ सके। कोई झरोखा नहीं होता जिससे रौशनी की किरण भीतर आ सके। एक ही तरफ़ की सोच कुएँ के मेंढक की तरह टर्राती रहती है और स्वयं को सही और बाकी सबको ग़लत समझती उसी दिशा की ओर ले जाती है, जिस दिशा में सही और ग़लत की पहचान नहीं रहती। जो निर्देश मस्तिष्क में भर दिए जाते हैं, उसमें रसायन भी वैसे ही बनने लगते हैं और प्रक्रिया भी वैसी ही रहती है। विचारधारा राजनैतिक भी हो सकती है और धार्मिक भी। कट्टरता तो आएगी ही, क्योंकि दूसरी विचारधारा की कोई अच्छाई सहन ही नहीं होती। यही संकीर्णता मानव को एक दूसरे के प्रति असहिष्णु बना देती है।इस समय पूरा विश्व संकीर्णता और कट्टरता की ऐसी आग में जल रहा है कि उसकी तपिश से बचना मुश्किल है। अफ़सोस की बात है कि अधिकतर बद्धिजीवी ही इन विचारधाराओं को प्रोत्साहित करते हैं, एक क्षण के लिए भी देश और जनता के हक़ में क्या सही है, उसके लिए सोचा नहीं जाता। राजनीतिज्ञ अपनी-अपनी विचारधारा को सही साबित और उन्हें स्थापित करने के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाते हैं और पढ़ा-लिखा वर्ग बिना सोचे समझे उनका साथ देता है। जनता के लिए त्रासदी और भी गहरी हो जाती है, जब एक विचारधारा की सरकार कुछ प्रोजेक्ट्स की स्वीकृति देती है, दूसरी सरकार जब आती है तो उन प्रोजेक्ट्स को अस्वीकृत कर देती है। दो कदम आगे गया देश तीन कदम पीछे चला जाता है। जनता अलग पिसती है। तो प्रश्न उठता है कि विचारधाराओं ने एक वर्ग पैदा करने के अतिरिक्त देश और समाज को क्या दिया? हालाँकि रूस इसका उदहारण है, यहाँ की विचारधारा का अपने ही बंद दरवाज़ों में दम घुट गया। भारत में अभी भी एक वर्ग इस विचारधारा को लेकर स्वप्न बुनता रहता है, जबकि चीन तक में यह बस ऊपरी सतह पर रह गई है। साहित्य में भी विचारधाराओं ने क्या किया? सिर्फ अपने लेखक स्थापित करने के अतिरिक्त साहित्य और भाषा की समृद्धि की ओर किसने देखा? कितने अच्छे लेखक इस सोच की बलि चढ़ गए। किसी बुद्धिजीवी ने यह नहीं सोचा कि यह सही नहीं, साहित्य के हित में नहीं है। साहित्य से प्यार करने वालों को बस रचना का स्तर और उत्तमता देखनी चाहिए न कि विचारधारा। विश्व पर इस समय रूढ़िवादी ताकतों का बोलबाला हो रहा है। भूमंडलीकरण ने विश्व को जहाँ छोटा कर दिया, एक तरह से मिला दिया। कुछ समय पहले तक ऐसा लग रहा था वसुधैव कुटुंबकम् की भावना पैदा हो रही है। पर ज्योंही रूढ़िवादी ताकतें सत्ता में आईं, विश्व फिर से पुरातन युग की ओर जाने लगा है। देश अपने में सिमटने लगे हैं। यूरोप, यूके, और अमेरिका के व्यपारिक संबंधों तक में स्वार्थता सिमिट आई है। अमेरिका की व्यपारिक नीतियों ने पूरे विश्व की आर्थिक व्यवस्था बिगाड़ दी है। चीन के साथ अन्य देशों की अर्थ व्यवस्था भी चरमरा गई है।

विचारधारा एक ऐसी संकरी गली है, जो सोच और विचारों को बस एक जगह लाकर बंद कर देती है। उस बंद मोड़ पर कोई खिड़की नहीं होती, जो खुल सके, जिससे ताज़ा हवा का झोंका आ सके। कोई झरोखा नहीं होता जिससे रौशनी की किरण भीतर आ सके। एक ही तरफ़ की सोच कुएँ के मेंढक की तरह टर्राती रहती है और स्वयं को सही और बाकी सबको ग़लत समझती उसी दिशा की ओर ले जाती है, जिस दिशा में सही और ग़लत की पहचान नहीं रहती। जो निर्देश मस्तिष्क में भर दिए जाते हैं, उसमें रसायन भी वैसे ही बनने लगते हैं और प्रक्रिया भी वैसी ही रहती है। विचारधारा राजनैतिक भी हो सकती है और धार्मिक भी। कट्टरता तो आएगी ही, क्योंकि दूसरी विचारधारा की कोई अच्छाई सहन ही नहीं होती। यही संकीर्णता मानव को एक दूसरे के प्रति असहिष्णु बना देती है।इस समय पूरा विश्व संकीर्णता और कट्टरता की ऐसी आग में जल रहा है कि उसकी तपिश से बचना मुश्किल है। अफ़सोस की बात है कि अधिकतर बद्धिजीवी ही इन विचारधाराओं को प्रोत्साहित करते हैं, एक क्षण के लिए भी देश और जनता के हक़ में क्या सही है, उसके लिए सोचा नहीं जाता। राजनीतिज्ञ अपनी-अपनी विचारधारा को सही साबित और उन्हें स्थापित करने के लिए अलग-अलग हथकंडे अपनाते हैं और पढ़ा-लिखा वर्ग बिना सोचे समझे उनका साथ देता है। जनता के लिए त्रासदी और भी गहरी हो जाती है, जब एक विचारधारा की सरकार कुछ प्रोजेक्ट्स की स्वीकृति देती है, दूसरी सरकार जब आती है तो उन प्रोजेक्ट्स को अस्वीकृत कर देती है। दो कदम आगे गया देश तीन कदम पीछे चला जाता है। जनता अलग पिसती है। तो प्रश्न उठता है कि विचारधाराओं ने एक वर्ग पैदा करने के अतिरिक्त देश और समाज को क्या दिया? हालाँकि रूस इसका उदहारण है, यहाँ की विचारधारा का अपने ही बंद दरवाज़ों में दम घुट गया। भारत में अभी भी एक वर्ग इस विचारधारा को लेकर स्वप्न बुनता रहता है, जबकि चीन तक में यह बस ऊपरी सतह पर रह गई है। साहित्य में भी विचारधाराओं ने क्या किया? सिर्फ अपने लेखक स्थापित करने के अतिरिक्त साहित्य और भाषा की समृद्धि की ओर किसने देखा? कितने अच्छे लेखक इस सोच की बलि चढ़ गए। किसी बुद्धिजीवी ने यह नहीं सोचा कि यह सही नहीं, साहित्य के हित में नहीं है। साहित्य से प्यार करने वालों को बस रचना का स्तर और उत्तमता देखनी चाहिए न कि विचारधारा। विश्व पर इस समय रूढ़िवादी ताकतों का बोलबाला हो रहा है। भूमंडलीकरण ने विश्व को जहाँ छोटा कर दिया, एक तरह से मिला दिया। कुछ समय पहले तक ऐसा लग रहा था वसुधैव कुटुंबकम् की भावना पैदा हो रही है। पर ज्योंही रूढ़िवादी ताकतें सत्ता में आईं, विश्व फिर से पुरातन युग की ओर जाने लगा है। देश अपने में सिमटने लगे हैं। यूरोप, यूके, और अमेरिका के व्यपारिक संबंधों तक में स्वार्थता सिमिट आई है। अमेरिका की व्यपारिक नीतियों ने पूरे विश्व की आर्थिक व्यवस्था बिगाड़ दी है। चीन के साथ अन्य देशों की अर्थ व्यवस्था भी चरमरा गई है।


वैश्विक आर्थिक मंदी पर इंटरनेशनल मॉनीटरी फंड्स की जुलाई 2019 की आर्थिक रिपोर्ट में लिखा है कि दुनिया भर के सब देशों की हालत इस आर्थिक मंदी के कारण ख़राब हो गई है, तथा और भी होने वाली है। आज इस आर्थिक मंदी का कारण दकियानूसी सोच है-मेरा देश, मेरी नस्ल, मेरी सोच, मेरी सभ्यता महान् । अपनी ही विचारधाराओं के दायरे में बंद सभी असुरक्षित हैं। इतिहास गवाह है, सिकंदर, हिटलर, मुसोलोनी; जिसने भी अपनी सोच और विचारधारा को दूसरों पर थोप कर महान् बनना चाहा, क्या वे बन पाए? कहाँ गए वे सब ? उनकी तो सोच और विचारधारा भी ज़िंदा नहीं रही। __ मैं बस इतना कहना चाहती हूँ कि विचारधारा की राजनीति के पैरोकारों से दूर रहें और अगर आप किसी धारा, वर्ग या पार्टी से सहानुभूति रखते हैं तो भी अपने दिल, दिमाग को खुला रखें और विवेक से काम लें। घट रही घटनाओं और हालातों का निष्पक्ष जायज़ा लें, तभी मानवता जिंदा रहेगी और प्रेम बच पाएगा। पर अफ़सोस किसी भी देश के नागरिक समय रहते सचेत नहीं होते। पंकज सुबीर का हाल ही में एक उपन्यास आया है जिन्हें जुर्म-ए-इश्क़ पे नाज़ था'। धर्मान्ध लोगों की आँख खोलता, राजनैतिक विचारधाराओं की जड़ें खोदता, राजनीतिज्ञों के चेहरों पर से नकाब उठाता, वर्तमान समय के साम्प्रदायिक असहिष्णुता से भरे माहौल में प्रेम और सद्भावना का सन्देश देता ऐसा उपन्यास है, जो आज विश्व के लिए बहुत ज़रूरी है। मेरा संपादकीय भी आज कुछ ऐसा ही है। ___ मैं अपने अनुभवों से यह बात कह रही हूँ, मेरा जन्म विचारधाराओं वाले परिवार में हुआ। पापा कम्युनिस्ट, माँ कांग्रेसी, बड़े भाई सोशलिस्ट और मौसा आर आर एस वाले। सभी अपनी जगह कट्टर। किसी में कोई लचक नहीं। अपनी -अपनी सोच सही, बाकी सब ग़लत। फिर भी एक घर में। वह समय एक दूसरे को बर्दाश्त करने और गरिमापूर्ण विचारों के आदान-प्रदान का था। अब दुनिया ही दिशाहीन और बैचैन है। कोई किसी को सुनना, समझना नहीं चाहता। मैं उस घर से आज़ाद ख़यालों की निकली; क्योंकि मेरे सामने कट्टरता के कई उदहारण थे। विदेश आकर दृष्टि और भी व्यापक हुई। देश, विदेश दोनों की राजनीतिक उठा-पटक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितिओं का निष्पक्ष गहन अध्ययन करती हूँ, तभी निवेदन कर रही हूँ, जो समय आ रहा है, उसमें एक दूसरे यानी भिन्न विचारों के प्रति भी उदार रहना ज़रूरी है। मानवता तभी बच पाएगी। प्रकृति के बदलते रूप, पर्यावरण में आ रहे परिवर्तन और विश्व में धीरे-धीरे बढ रही अशांति में प्रेम और धैर्य ही काम आएँगे और कुछ भी नहीं.......