अपना -पराया

अचानक सर चकराया और जमीन पर धड़ाम से गिरे रमानाथ बेहोश से हो गए। काफी देर बाद जब थोड़ा सम्हले तो धीरे - धीरे उठे और रसोई में जाकर पानी पिया, कुछ दवा ली और आकर बिस्तर पर लेट गए। ऐसा पहली बार नही हुआ था, कई बार हो चुका था। इलाज़ चल रहा था पर एकाकी जीवन में दवाएँ भी कितना असर करती। चिंता और परेशानी का सबब अब उनसे सहन नहीं हो रहा था और वे रोज़ ही ईश्वर से मुक्ति की प्रार्थना करते पर जितनी साँसें मिली थी उन्हें पूरा तो होना ही था। बिस्तर पर पड़े-पड़े उनकी आँखें जब नम हो आईं तो बरबस ही रमानाथ अपने अच्छे बिताए दिनों को याद करने लगे। अब ये यादें ही उन्हें थोड़ी राहत देती थीं। रमानाथ को याद आया - कैसा छोटा सा संसार था उनका । इकलौता पुत्र और पत्नी। बस यही उनकी जिंदगी थी। सरकारी नौकरी में खुद का मकान बना भी लिया था। ऊपर किरायेदार की चहल पहल और नीचे उनका खुशहाल परिवार। समय को कब पंख लग गए पता ही नहीं चला। बेटा अपनी पढ़ाई कर विदेश चला गया और वहीं शादी कर बस गया। रह गए रमानाथ और उनकी पत्नी अकेले। देखते ही देखते रमानाथ भी सेवा निवृत्त हो गए। बेटे के हाल चाल फ़ोन पर मिल जाता। उसी से संतोष कर लेते । समय बीतता गया और एक दिन उनकी धर्मपत्नी भी उन्हें अकेला छोड़ हृदयाघात से चल बसी। ऐसे समय में भी जब बेटा - बहू स्वदेश न लौट सके तो उन्हें अपना जीवन निरर्थक लगने लगा। कई बार उन्होंने अपने बेटे को वापस बुलाना चाहा पर सफलता नहीं मिली। थक हार कर अब वे अपना निराश जीवन व्यतीत करने लगे। बढ़ती उम्र में बीमारियों से घिर गए और चिकित्सकों ने टिफिन के खाने पर पाबंदी लगा दी तो ऐसे समय में उनके किरायेदार ही काम आए। अब उन्हीं के घर से दोनों समय का खाना और चाय मिलने लगी। रमानाथ ने भी कोई विकल्प न देख इस व्यवस्था को स्वीकार लिया। अब उन्हें अपने -पराए का अंतर भी महसूस हो रहा था। खुद की औलाद को उनकी कोई फ़िक्र न थी और पराए उनकी सेवा कर रहे थे। यही सब सोचकर उनकी आँखें भर आईअस्सी की उम्र में अब उन्हें यह चिन्ता सता रही थी कि यदि उन्हें भी उनका पुत्र मुखाग्नि देने नहीं आया तो फिर कौन इस कर्म को करेगा? कई दिनों से उनके मन में चल रही इस कश्मकश का हल तो उन्हें निकालना ही था। भरे मन से वे बिस्तर से उठे और उन्होंने अपने किरायेदार के बेटे को यह अधिकार देने का फैसला फ़ोन पर अपने वकील को सुना दिया। शाम को अपनी वसीयत पर हस्ताक्षर करते हुए उनका चेहरा दमक रहा था। लगता था जैसे उन्हें अब अपने पराए की पहचान हो चुकी थी।


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